S.A. Vasudevamurthy, Rural Development Expert

ग्रमीण भारत की तरक्की केलिए अब तक केंद्र तथा राज्य सरकारों ने ९० से भी अधिक परियोजनाओं को लागू किया है। फिर भी ग्रमीण विकास की दिशा में उद्देशित लक्ष्य हासिल नहीं हुआ है। अब विफलता की ओर झांकने की आवश्यकता है। देश की कुल आबादी में करीब ६८ प्रतिशत ग्रमीण प्रदेशों में है तो ३२ प्रतिशत आबादी नगर प्रदेशों में पायी जाती है। देश में ६,३२,५९६ गाँव हैं इनमें ४४,८०० गाँवों में लोगों का आवास ही नही है तो बाकि ५,९३,७३१ ग्रामों में आबादी पायी जाती है।
गरीब रेखा से नीचे रहनेवाले:
२०११-१२ के आंकडे के मुताबिक नीचे जीवनयापन करनेवालों की संख्या १५,३१९ करोड से भी ज्यादा है। जिनका जीवन अति दुर्भर है। १४१ मिलियन हेक्टेर खेतीबारियोग्य ज़मीन है, जिसमें ३९ मिलियन हेक्टेर ज़मीन में सालाना दो बार फसल उगा जा सकता है। करीब सौ नदियाँ और उपनदियाँ हैं।
छोटे पैमाने की खेतीबारी:
इतने सबकुछ रहने पर भी प्रश्न यह उठता है कि हम निर्धारित लक्ष्य पर पहुंच क्यों नहीं पाये हैं? क्योंकि हमारा मालिकत्व १.१ हेक्टेर है। अतः सभी कार्याक्रमों को इतने सीमित प्रदेश में लागू करते समय कई सवाल उभरते हैं। इसे देखने से हमें यह विदित होता है: आमतौर पर छोठे पैमाने की खेतीबारी में कम आमदनी है। क्योंकि इसमें पूंजी लगाने में सीमित मौके हैं। इससे किसानों को निश्चित आमादनी न मिलना, फसल को निरीक्षित मूल्य न मिलना और जिन उपकरणों का इस्तेमाल किया जाता है, उनका मूल्य किसान की जानकारी से बाहर रहना आदि।
इनके साथ नवीनतम तकनीकी ज्ञान को अपनाने तथा उनको कार्यान्वित कराने में भी कई प्रतिरोध तथा अड़चने भी हैं। गाँववालों को खेतीबारी के अलावा अन्य कोई भी आय के मूल नहीं हैं। बहुतों पर पारंपरिक ऋणभार भी रहता है।

न्यायसम्मत दाम नहीं मिल रहा है:
इन सभी को मध्येनज़र रखकर देखने से लगता है, ग्रामीण प्रदेशों के लोगों को भविष्य नहीं है। क्योंकि काफ़ी बारिश हुई तो ज्यादा पैदावार मिलता है। पर दाम नहीं मिलता है। बारिश कम हो तो फ़सल ही नहीं लगता है। इसके कारण सरकारें कर्ज़ माफ़ी, ब्याज माफ़ी, फ़सल प्रोत्साहन दाम, फ़सल बीमा योजना आदि को लागू कर रही हैं।
शाश्वत निवारण की आवश्यकता:
उपर्युक्त समस्याओं के शाश्वत निवारण के बारे में सोचने की जरूरत है। किसान की ज़मीन किसान के पास ही रहनी है। इनके पास आवश्यक पूँजी लगाने की शक्ति न रहने के कारण योजनाओं का स्वरूप भिन्न रहने की आवश्यकता है। किसानों से अधिक पूँजी लगाये बिना अधिक से अधिक लाभ पाने लायक होनी चाहिए। यही ‘स्मार्ट विलेज इकानमी’ का सार है। १.१ हेक्टेर ज़मीन जो किसानों के पास रहती है जिसमें परिवार के चार सदस्यों को भी पेट भर रोटी मिलना मुश्किल होने के कारण उनको मुम्बई जैसे नगरों में जकर कुली काम करना अनिवार्य बन गया है। इसे बचाकर, उत्पादन बढ़ाकर परिवार की आय में वृध्दि कराने की आवश्यकता है।
सांसदों के क्षेत्र ही इकाई है:
‘स्मार्ट विलेज इकानमी ज़ोन’केलिए संसदों के क्षेत्रों को एक इकाई के रूप में मानने की आवश्यकता है। इसकी १६.७५ हेक्टेर भूमि में विविध प्रकार के कामाया जा सकता है। बाकि ६४.२५ हेक्टेर भूमि में पैदावार और ८१ हेक्टेर भूमि में ‘ग्रूप’ के रूप में विभाजित करके एस.इ.ज़ेड की स्थापना की जा सकती है बची ३८९ हेक्टेर भूमि को व्यवस्थापन को छोड़ा जा सकता है। केंद्र सरकार के ‘सेन्ट्रल प्रोडक्शन एण्ड रेगुलेशन अथारिटी’ के तहत उत्पादनों का कार्य निरंतर चलाया जा सकता है। इस प्रकार देश के ५४३ सांसदों के क्षेत्रों में ग्रामीण प्रदेश के नगरों को भी मिलाकर ५०० एम.पी.क्षेत्रो में एस.इ.ज़ेड की स्थापना समीचीन लगती है।


जी.डी.पी.का प्रतिशत धन:
इन सभी कार्यों के सुचारू रूप में सफल बनाने को पूँजी की आवश्यकता है। इसकेलिए देश की जी.डी.पी.का मात्र १ प्रतिशत धन काफ़ी है। फ़िलहाल केंद्र तथा राज्य सरकारों में क्रुषि विभाग में आर्थिक सहायता(सबसिडी) की व्यवस्था है।
किसान ही ज़मीन के मालिक है|
किसान ही अपनी अपनी ज़मीन के मालिक बनना ही एस.इ.ज़ेड़. की विशेषता है। यह ज़मीन किसी भी हालत में किसीकी कब्जे में नहीं जायेगी। खेतीबारी करने के वास्ते ज़मीन मालिक के साथ १२ वर्षों की संधि(करार) बनायी जाती है। इससे खर्च को निकालकर मिलनेवाला मुनाफ़ा इनको ही मिलता है।
इन क्षेत्रों में जो पैदावार मिलता है उसे सीधे बाज़ार न ले जाकर गोदामों में संरक्षित रखा जाता है। जिसकेलिए गोदामों का निर्माण किया जाता है। इसकी जिम्मेदारी प्रशासन मंडली के पास रहने कारण किसानों को अधिक लाभ मिलता है। किसान के कर्ज के पैसे काटकर बाकि रकम बैंकों में उनके खातों में जमा किया जाता है। इससे लाभ का वितरण सही होता है।
प्रशासन व्यवस्था में प्रातिनिधिकता:
नतीजा यह निकलता है कि कुछ वर्ष पश्चात एस.इ.ज़ेड.को स्वतंत्र रूप में चलाने की शक्ति किसान सदस्यों को प्राप्त होती है। इसकेलिए उनको प्रशिक्षण दिया जाता है। एक एस.इ.ज़ेड.के अंतर्गत परियोजना के निर्वाह को करीब ११.६० करोड़ रुपये की आवश्यकता होती है। अन्यान्य निवेशकों से और केंद्र तथा राज्य सरकारों की आर्थिक सहायता द्वारा संग्रहीत किया जाता है। सौरऊर्जा प्राप्त करने केिए घरों के छत पर सौरफ़लक स्थापित किया जा सकता है। जिस केलिए करीब १४० लाख रुपये के लागत की आवश्यकता होती है। इसे ‘बूट माडेल’ के तहत निर्वाह किया जा सकता है। राड्ढ्रीक्रुत बैंको से भी कर्जाया जा सकता है। अलावा इसके ‘वर्किंग केपिटल’ के रूप में पचास लाख तो रहता है। कुल मिलाकर ११.६० करोड़ बन जाता है।
निवेशकों को भी लाभ:
इसमें २० प्रतिशत मुनाफ़ा मिलने लायक बनाया जा सकता है। साथ ही बैंको का ऋण १०० प्रतिशत अदा भी किया जा सकता है। प्रस्तुत करीब ९० लाख रुपये का ऋण क्रुषि कार्यक्रमों को बैंको द्वारा दिया जा रहा है। जिसकी अवधि पांच वर्ष की होती है। इससे हर एक वर्ष में एक सांसद क्षेत्र में ६०० एस.इ.जेड.की स्थापना हो सकती है। इस प्रकार करने से सालाना प्रति एकड को १ लाख रुपये के हिसाब से लाभ मिलता है।


मल्टी पर्पस बिडिंग काम्लेक्स:
एस.इ.ज़ेड. की विशेषता यह है: सालाना ८०० टन क्रुषि उप्तादनों का संग्रह करने लायक बड़े बड़े गोदामों का निर्माण, २०० किलो व्याट सौरऊर्जा उत्पादित करने की क्षमतावाले सौराशक्ति इकाई, साथ ही-हैरिंग सेंटर तथा प्रयोगालय बन सकते है। इनमें मापनकेंद्र तथा सूचना केंद्र भी रहते हैं। अलावा इसके सभागृह, खाद संग्रह गोदाम आदि केंद्रों की भी स्थापना की जा सकती है।
वनों को महत्व:
इससे पहले हर गाँव ग्रामों में अपने ही संरक्षित वन रहते थे। इसी नमूने के अनुसार ‘एस.इ.ज़ेड. वनों’ का निर्माण किया जा सकता है। जिसमें बाजार में अधिक लाभ मिलने लायक पेड़ों को उगाया ज सकता है।
पैदावारों से उपभोक्ताओं तक:
एस.इ.ज़ेड.का ध्येय वाक्य ही ‘पैदावारों से उपभोक्ताओं तक’ है।
यहाँ मद्यवर्ति को मौका ही नहीं है। अतः इसका पूरा लाभ किसानों को ही मिलता है। किसानों के उत्पादनों को उन्हीं के द्वारा खरीदने से उपभोक्ताओं को भी खुशी मिलती है। इस प्रकार किसानों को ऋणमुक्त कराया जा सकता है।
अधिक जानकारी केलिए संपर्क करें: 080 2698 5100 / 080 2698 5101

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